नई तकनीक: अब आसानी से तोड़ सकेंगे बेर
– बेर में सधाई (ट्रेनिंग) की नई प्रणाली का विकास
बीकानेर। भाकृअनुप.केन्द्रीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर ने बेर की विभिन्न किस्मों में पौधों की सधाई हेतु एक अभिनव प्रयोग करते हुए एक नई प्रणाली का विकास किया है। भारत में इस प्रणाली द्वारा बेर की खेती का यह प्रथम प्रयोग है। इसमें
वाई आकार,
लता आकार, टी आकार आदि सधाई प्रणालियों में बेर की इस क्षेत्र की चार प्रमुख किस्में गोला, गोमा कीर्ति व थार सेविका के साथ नई विदेशी किस्म थाईबेर को लगाया गया। इस प्रणाली के बारे में बताते हुए संस्थान के निदेशक प्रो. डॉ. पी. एल. सरोज ने बताया कि बेर एक कांटेदार पौधा होता है और इन पौधों में पारम्परिक सधाई प्रणाली के तहत तुड़ाई करना एक कठिन कार्य था जिससे किसान को कम आय होती थी। किसान की कठिनाई को देखते हुए इस संस्थान ने इस विषय पर शोध करते हुए इस अभिनव प्रणाली का विकास किया है। वाई आकार में अंग्रेजी के वाई अक्षर के आकार में पौधे के मुख्य तने व उसकी प्राथमिक शाखाओं की सधाई की जाती है जिसमें एक निश्चित ऊंचाई रखी जाती है। लता आकार प्रणाली में पौधे के मुख्य तने को लताओं की तरह तीन तारों पर साधा जाता है और उसमें भी उसकी लगभग 6 फिट की ऊंचाई रखी जाती है।
इसका बगीचा सीधी दिवार की तरह विकसित हो जाता है। टी आकार पर पौधे को अंग्रेजी के टी अक्षर के आकार में टेलीफोन के तारों की तरह के ढांचे पर पौधे को फैलाया जाता है। इस प्रकार की प्रणाली के विकास से पौधे की बढ़वार सही प्रकार से होती है और उत्पादन अधिक प्राप्त होता है। इसमें सूर्य की रोशनी पूरी तरह से पौधों पर पड़ती है और गुणवत्ता युक्त अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। इस प्रणाली में पौधों से पौधों की दूरी इस प्रकार रखी जाती है जिससे मशीनों के उपयोग द्वारा फलों की तुड़ाई और अन्य कृषि प्रबंधनों में सरलता रहती है। इस प्रणाली के द्वारा बेर की फसल लेने वाले किसानों की आय सरलता से दुगनी की जा सकती है।
ऐसे करते हैं रोपण
एक हेक्टेयर क्षेत्र से 6 गुणा 3 मीटर की दूरी पर लगाने से 556 पौधों को समाहित किया जाता है। रोपण के एक वर्ष बाद ही फल आने शुरू हो जाते हैं। पहले वर्ष में ही 10 से 12 टन उपज सरलता से प्राप्त की जा सकती है जो पारम्परिक प्रणाली में संभव नहीं है। दूसरे वर्ष लगभग 12 से 15 टन उपज होने की संभावना है। संस्थान के वैज्ञानिकों की एक टीम जिसमें प्रो पी एल सरोज डॉ बी डी शर्मा एवं डॉ दीपक कुमार सरोलिया हैं। इस प्रणाली के मानकीकरण करने में प्रयासरत हैं। किसान इस प्रणाली को देखकर अत्यधिक उत्साहित हैं एवं इस तरह बेर का बाग विकसित करने के लिए संस्थान से संपर्क कर रहे हैं।
इन आकार से तकनीक हुई साकार
उत्पाद की मूल्य प्रतिस्पर्धा को देखते हुए अच्छी गुणवत्ता के फल पैदा करना समय की आवश्यकता है। सामान्य रूप से बेर की खेती से अच्छी गुणवत्ता के फल नहीं मिल पाते हैं। इसके लिए यदि बेर के पौधों की सधाई करते हुए निश्चित फ्रेम पर नियंत्रित करते हैं तो, अच्छी गुणवत्ता के फल व अधिक उपज मिल सकती है। संस्थान ने बेर के बगीचों को ‘वाई‘, ‘टेलीफोन‘ एवं स्पेलियर आकारों पर विभिन्न प्रजातियों को नियंत्रित किया है। पिछले तीन वर्षों के परिणाम बताते हैं कि अलग-अलग किस्म अलग-अलग आकारों की सधाई पर अपना प्रभाव दिखाती है, जैसे- गोला व थार सेविका प्रजातियां की अच्छी गुणवत्ता और अधिक उपज ‘वाई‘ आकार पर मिली, वहीं थाई बेर व गोमा कीर्ति किस्मों को अच्छी गुणवत्ता और अधिक उपज ‘स्पेलियर‘ आकार पर सधाई कर नियंत्रित करने पर प्राप्त हुई। उच्च तकनीकों के अनुसार पौधों को साध कर नियंत्रित करने से पौधों को हवा व धूप समान रूप से मिलती रहती है जिससे उसका स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। इस तकनीक की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें फल तुड़ाई सरलता से हो जाती है जिससे श्रम की बचत भी होती है।
सधाई की टेलिफोन, वाई आकार और एसपिलर तकनीक
लागत-लाभ अनुपात: बेर की सामान्य रूप से की गयी खेती से कुल उपज 12-15 टन प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है जिसका बाजार मूल्य लगभग रू. 80000 से 100000/- लाख तक प्राप्त हो सकता है। जबकि कुल लागत रू. 20000/- से 25000/- आती है। इस प्रकार बेर फसल से प्रति हेक्टेयर शुद्ध लाभ रू. 60000/- से 75000/- के लगभग प्राप्त हो पाता है।
बेर के पौधों को यदि उचित फ्रेम पर नियंत्रित किया जाए तो एक हेक्टेयर क्षेत्र से 18-20 टन उपज प्राप्त हो सकती है, जिसकी बाजार विनिमय दर रू. 125000/- से 150000/- लाख तक हो सकती है। इसकी लागत एक हेक्टेयर क्षेत्र में रू. 30000/- से 35000/- तक आती है और इस प्रकार प्रति हेक्टेयर शुद्ध लाभ रू. 95000/- से 115000/- तक मिल सकता है।
इस प्रकार किसान उच्च तकनीकी से बेर की खेती करते हैं तो उनकी आय में सामान्य तकनीक से की गयी खेती की तुलना में 70-80 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। उच्च तकनीक से बेर की खेती करने से फलों के निर्यात की भी संभावना है क्योंकि उनमें रोग व कीडे़ का प्रकोप कम होता है और फलों की गुणवत्ता भी अधिक होती है।