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अपना आत्मविश्वास जगाओ, अंदर साहस पैदा करो- आत्मसाहस आत्मप्रकाश को पैदा करता है- आचार्य विजयराज

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बीकानेर पाप का त्याग संकल्प के बगैर संभव नहीं है। अपना आत्मविश्वास जगाओ, अपने अंदर साहस पैदा करो। जिसमें  आत्मविश्वास नहीं है उसमें दीनता, हीनता, मलीनता की भावना बढ़ती रहती है। वह पाप का त्याग नहीं कर सकता और धर्म का अंगीकार भी नहीं कर सकता है। यह सद्वचन श्री शान्त-क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज ने मंगलवार को सेठ धनराज ढढ्ढा की कोटड़ी में नित्य प्रवचन के दौरान व्यक्त किए, महाराज साहब ने भगवान की महिमा का गुणगान करते हुए भजन ‘भगवन तेरे चरण में, मेरी वंदना है। मन से, वचन से, तन से, सर्वस्व अर्पणा है।।’ का संगान किया।

आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने अपने नित्य प्रवचन में साता (सुख)वेदनीय और असाता (दुख)वेदनीय कर्म में भेद बताते हुए कहा कि साता का राग बुरा होता है और असाता का भय भी बुरा ही होता है। हमें इन दोनों से ही बचना चाहिए। ना हम राग में रहें और ना ही हमें भय में रहना चाहिए। महाराज साहब ने कहा कि साता का राग अनुकूलता की अधीनता है। हर व्यक्ति अपने जीवन में साता चाहता है, यह हमारे मन में राग पैदा करता है। जो हमारे भीतर अतिकूलता का भय होता है, वह असाता की अधिकता से आता है। महाराज साहब ने कहा कि महापुरुष फरमाते हैं कि पाप का त्याग करने के लिए व्यक्ति के भीतर साहस का जागरण होना चाहिए। ऐसा ना होने पर वह पाप का त्याग नहीं कर पाता है। उन्होंने चार प्रकार के साहस बताते हुए कहा कि पहला साहस है हमारा कदम उठाने का, दूसरा संकल्प के लिए , तीसरा जोखम उठाने के लिए और चौथे प्रकार का  साहस काम करने के लिए चाहिए।  

आचार्य श्री ने कहा कि साहस नहीं होता है तो विकास भी नहीं होता है। साहस की जननी आत्मविश्वास है। महाराज साहब ने कहा कि मैं यह कार्य कर सकता हूं, या मुझे यह कार्य करना है। यह आत्मविश्वास की कसौटी है। आत्मविश्वास से कमजोर व्यक्ति जीवन में साहस नहीं कर पाता, साहस हमारी मूलभूत पूंजी है। अपने भीतर कार्य के प्रति साहस होना चाहिए। उत्साह का संचार होना चाहिए, वह जीवन है। जिसमें आत्मविश्वास होता है, उसके जीवन में जीवटता आती है। आत्मसाहस आत्मप्रकाश को पैदा करता है।
साधक के लिए महाराज साहब ने कहा कि साधक अनुकूलता हो या प्रतिकूलता वह हमेशा सम भाव रखता है। साधक कभी भयभीत नहीं होता है।

इस भव सागर से तरने का उपाय बताते हुए महाराज साहब ने उपस्थित श्रावक-श्राविकाओं से कहा कि अनुकूलता- प्रतिकूलता जीवन का हिस्सा है। अगर हमारे भीतर समत्व का भाव आ जाए समभाव आ जाए हम आत्मा को तार जाते हैं। धर्मसभा में नव दीक्षित विशाल मुनि म. सा. ने विनय सूत्र के श्लोक कण कुण्डगं चइताणं, विट्ठं भुंणई सुथरे! एवं सीलं चइताणं, दुस्सीले रमई मिए! ! का विवेचन किया।
श्री शान्त-क्रान्ति जैन श्रावक संघ के अध्यक्ष विजयकुमार लोढ़ा ने बताया कि चातुर्मास में गुप्त उपवास के साथ श्रावक-श्राविकाओं ने प्रत्यख्यान, एकासना, उपवास, आयम्बिल, तेला, की तपस्या चल रही है।

इसके अलावा अरिहंत बोधी कक्षा, प्रज्ञा जागरण शिविर, आज्ञा का लाभ और महामंगलिक व लोगस का श्रवण लाभ लेने के लिए स्थानीय श्रावक-श्राविकाओं के साथ दूरदराज के क्षेत्रों सिकन्दराबाद, हैदराबाद, ब्यावर, भीलवाड़ा, सूरत आदि से संघ के सदस्य पधारे हुए हैं और धर्मसभा के साथ धर्मचर्चा में भाग लिया।
संघ के प्रचार मंत्री अंकित सांड ने बताया कि जबसे आचार्य श्री का मंगलमय प्रवेश हुआ है, तब से त्याग-तपस्या का निरंतर दौर चल रहा है। इस कड़ी में दस का तप प्रकाशचंद राखेचा का एवं अठाई के तप की सौरभ गिडिय़ा,ऋषभ सेठिया, भाग्यश्री सुराणा, सीमादेवी छाजेड़, दीप्ति देवी झाबक, मधुदेवी श्री श्रीमाल, सरिता देवी दसाणी और ज्योति सेठिया द्वारा तपस्या चल रही है।

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