BikanerExclusive

लोकतंत्र के लिए खतरनाक है मंदिर-मस्जिदों को राजनीति में धकेलना

1
(1)

राजेन्द्र जोशी✍

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोक की भूमिका को खुद लोक ही खोजने में लगा हुआ है। लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाए रखने की जिम्मेदारी आखिर किसके जिम्मे है। लोकतंत्र की रक्षा सरकार, राजनैतिक दलों, सामाजिक संगठनों अथवा चुनाव आयोग की है अथवा असंगठित लोक के भरोसे पर ही है।

देश में विकासवाद के नाम सत्ता हासिल करने वालों को यह समझ क्यों नहीं आता कि वह लोकतंत्र की खूबसूरती की वजह से ही सरकार में है। लोकतंत्र में विश्वास रखने वालों को यह समझना होगा कि सरकार संविधान से चलती है, संविधान के विपरीत किसी भी राजनैतिक दल अथवा सरकार की विचारधारा कैसे हो सकती है।

हिन्दुस्तान के सबसे बड़े प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। सभी राजनैतिक दल वहां आगामी चुनावों में धार्मिक मुद्दे बनाये जा रहे हैं जो कि लोकतंत्र और संविधान के अनुरूप तो नहीं हैं। नेताओं साम्प्रदायिक आधार वोट मांगते हुए खुले आम कहने से नहीं चूकते। इन बिन्दुओं को चुनौती देने का साहस लोक में नहीं है क्योंकि स्पष्ट है कि चुनाव आयोग दोस्ती और वफादारी निभाने के लिए ईमानदारी से मुंह में मूंग डाल बैठा है। स्वतः संज्ञान लेने की जरूरत है, मीडिया में छप रहा, नाम की आचार संहिता लागू है, सरकारी पदों पर काबिज नेता पद का रुतबा दिखाकर वोट बटोरने में लगे हैं। अफसरों को डरा-धमका कर चलते चुनाव में मंत्री काम का प्रलोभन देते हैं। जब तक मंदिर-मस्जिद की घंटी पांच साल का परमिट लेने के लिए ताबत तोड़ कोशिश कर रहे हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों की परवाह किए बिना येन केन तरीके से सता में बने रहना ही एक मात्र उद्देश्य है। चुनाव आयोग भी सरकार की तरफ मुंह लटकाये मौन है, सेवानिवृत के उपरांत बड़े पद की लालसा और सरकार को खुश करने का जुगाड़ में लोकतंत्र को कमजोर करने का खुलमखुला खेल होता है।

अजान चुनावों के दौरान नेताओं के हाथ में रहेगी तो लोकतंत्र मजबूत कैसे होगा। इनके नाम पर धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा देश को कौन समझाए। इस देश का लोकतंत्र जाति-धर्म के सहारे चलाने वालों को चुनौती देने का काम कौन करेगा। बड़े राज्यों के चुनावों को साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास किया जा रहा है। मतदाताओं को विकास, मंहगाई, रोजगार और गुंडा राज के विषयों को समझने का अवसर नहीं दिया जाता। आचार संहिता और चुनाव आयोग के नाक के सामने संविधान के विरुद्ध भड़काने का काम हो रहा है कि हिन्दुस्तान में मंदिर नहीं बनाया जाएगा तो फिर देश के बाहर नहीं। सरकारें पाँच साल की उपलब्धियों के बखान मंदिर तक सीमित हैं।

लोकतंत्र में दलबदलू खतरनाक होते जा रहे हैं, भगवाधारी दल का रंग अब एक ही रंग का होने का साहस नहीं दिखा पा रहे है, उनका रंग तो सतरंगी हो ही चुका है। सबसे अधिक खतरनाक लोकतंत्र में यही कर्णधार हैं और यह हर हाल में खुद को कामयाब और खुशहाल बनाये रखने के लिए लोकतंत्र का मखौल बना रहे हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों का मजाक तो तब देखने को मिलता है जब मध्यप्रदेश एवं कर्नाटक में चुनी हुई सरकारों को पटकनी देकर खुद सत्ता में काबिज हो गये। लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करने का खेल भाजपायी खेल रहे हैं, जिन्हें लोकतंत्र में कम और सत्ता हथियाने का प्रयास करते हैं। लोकतंत्र में लोक की आवाज़ को बुलंद करने, लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने एवं धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का प्रयास होना चाहिए। पाँच साल का परमिट मिलने के बाद निर्धारित अवधि से पहले त्यागपत्र का नाटक कर फिर से लोक को चुनाव में धकेलने पर पाबंदी लगाने तथा दलबदलूओं को रोकने की कोशिश होनी चाहिए तभी लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं का ठीक से संभाल सकेंगे।

लोकतंत्र में लोक कही खो सा गया है इसलिए धार्मिक मत के सहारे धार्मिक मतदाता बनाये जाने का घिनोना खेल चल रहा है। सामाजिक रीति-रिवाज और सांस्कृतिक त्योहारों का बंटवारा राजनैतिक दलों ने कर लिया है। समाज को भी अपने अधिकारों में लेना लोकतंत्र के लिए खतरनाक होता जा रहा है।

राजेन्द्र जोशी, हिन्दी राजस्थानी के कवि-कथाकार

How useful was this post?

Click on a star to rate it!

Average rating 1 / 5. Vote count: 1

No votes so far! Be the first to rate this post.

As you found this post useful...

Follow us on social media!

Leave a Reply